यहां सम्बन्धों की नदी
सहज नहीं हुआ करती
बहती नहीं निश्चल हर-हर
यहां उसे
काट-छांट कर
जरूरतों के मुताबिक
लोग बना लेते हैं
नहर....
ये है शहर
महेन्द्र उपाध्याय
मंगलवार, 10 जुलाई 2007
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1 टिप्पणी:
सिकुड़ते रिस्तों के एहसास को आपने इन पंक्तियों में समेटकर एक अच्छी रचना को जन्म दिया है, बधाई!!!
सस्नेह,
गिरिराज जोशी "कविराज"
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